Yaari | यारी

कहानी शुरू करने से पहले मै आपको बताना चाहूंगी कि मैने एक EBOOK बनाई है जिसमे मेरी तीन आत्मलिखित पसंदीदा कहानियाँ हैं और वो मै आप सब को बिलकुल FREE में दूंगी। आपको बस अपना EMAIL ID नीचे भर कर मुझे भेजना है ताकि मै तुरंत आपको EBOOK भेज सकू।



कहानी सुनें:

अगर आप कहानी सुनना पसंद नही करते या फिर अभी सुनना नही चाहते तो आगे कहानी पढ़े|

 

कहानी पढ़े:

सूरजगढ़ बहुत ही सम्पन्न गाँव था। यहाँ पर लोगों की आबादी गाँव की संपन्नता की अपेक्षा बहुत कम थी। इसी के साथ रतनगढ़ गाँव भी सूरजगढ़ से कम सम्पन्न न था। इस गाँव में भी सूरजगढ़ की तरह लोगों की आबादी कम थी इसलिए यहाँ पर एक घर से दूसरे घर की दूरी काफी होती थी।

लेकिन सूरजगढ़ के सुखदेव सिंह व रतनगढ़ के गुरुचरण सिंह का घर एकदम से सटा हुआ था क्योंकि जहाँ से सुखदेव सिंह के घर की सीमा समाप्त होती वहीं पर सूरजगढ़ की सीमा समाप्त होती थी और ठीक उसी के बाद रतनगढ़ की सीमा जहाँ से शुरू होती वहीं पर गुरुचरण सिंह के घर की सीमा शुरू होती थी। अर्थात दोनों ही गाँव एक-दूसरे से बहुत सटे थे.. और इन दोनों गाँव की एक विशेषता थी…वो ये कि दोनों गाँव अलग-अलग राज्यों में आते थे। तब भी इन दोनों गाँव में कोई दूरियां नहीं थी…इसलिए जब भी कोई दूर से अनजान व्यक्ति देखता तो उसे पूरा एक गाँव ही प्रतीत होता…क्योंकि न तो इन दोनों गांवों के बीच कोई सीमा रेखा थी और न ही कोई दूरी…अक्सर रतनगढ़ के काम से आया बाहरी व्यक्ति सूरजगढ़ की सीमा से ही घुस जाता या फिर ठीक इसका उल्टा भी होता…उसे समझ ही नहीं आता कि वो किस गाँव में घुस रहे हैं…दोनों गांवों में भाई चारा भी इतना जैसे एक माँ की दो सन्तानें हो।

जब दोनों गाँवों में इतना प्यार था तो जिनका घर सटा-सटा था…उनमें कितना प्यार होगा यानि कि सुखदेव सिंह व गुरुचरण सिंह में… ये बताना बड़ा मुश्किल था…बस इसी से अंदाजा लगाया जा सकता था कि दोनों घरों के बच्चे जब जन्में तो किसी भी बच्चों को…कम से कम दस साल तक ये नहीं मालूम था कि उनके असली माँ- बाप कौन से हैं…? कोई भी बच्चा…जिस किसी से फरमाइश करता…उनकी पूरी हो जाती ..ये नहीं देखा जाता कि वो किस घर के बच्चे हैं इसलिए पूरे गांव में उनकी दोस्ती की मिसाल दी जाती।

एक बार दोनों गांवों में चुनावों का दौड़ चला। बड़ी गर्म जोशी के साथ वोट डालने की तैयारियां होने लगी…दोनों गाँव दो राज्यों में होने के कारण सूरजगढ़ में पहले दिन व दो दिन बाद रतनगढ़ में वोट डलना था इसलिए इन दिनों इन गांवों में नेताओं का आना जाना लगा था। पहले दिन सूरजगढ़ में शांतिपूर्वक वोट डला। फिर दो दिन के बाद रतनगढ़ में भी वोट शांति पूर्ण समाप्त हुआ। सभी काम सही ढंग से पूर्ण होने के बाद सभी लोग चैन की सांस लिए…पर ये क्या…? दोनों राज्यों के नतीजे बड़े विचित्र निकले। क्योंकि दोनों राज्यों में अलग-अलग पार्टी की जीत दर्ज हुई। कुछ दिनों में ही दोनों गांवों का माहौल बदलने लगा। अब पहले जैसा भाईचारा दिखाई नहीं दिया…क्योंकि अब छोटी- छोटी बातों पर लड़ाई झगड़े शुरू होने लगे।

एक रात अचानक छोटी सी बात पर… दंगे का रूप ले लिया। फिर क्या होना था… वही हुआ जिसका सभी को डर था… जिधर देखो उधर ही लाशें बिछ गई…कर्फ्यू लगा दिया गया…दोनों राज्यों की सरकारों ने मरने वालों को मुआवजे के रूप में तीन-तीन लाख रुपये देने की घोषणा कर डाली। अब रात तो दूर…दिन में भी लोग अपने घरों से निकलने से डरने लगे…अगर किसी कारण वश निकलना भी पड़ता तो एक दो लोगों के साथ निकलते थे। परन्तु सुखदेव सिंह व गुरुचरण सिंह में आज भी वही दोस्ती कायम थी। दोनों ही एक दूसरे के घर व अन्य सदस्यों के प्रति इस मुसीबत का डट कर सामना कर रहे थे…क्या मजाल कोई… इनके घरों या सदस्यों के तरफ आँख उठा ले।



उस दिन… शाम होने को आई… सूरज ढल चुका था… सुखदेव सिंह ने देखा कि गुरुचरण सिंह का बेटा जो एक साल का था…वो शाम से ही रोया जा रहा था.. क्योंकि घर में दूध की एक बूंद न थी आखिर उसे पिलाये तो क्या पिलाये…पूरी रातभर की बात थी… यही सोच सुखदेव सिंह घर से अकेले निकल पड़े… जैसे ही गुरुचरण सिंह को पता चला…लाठी-डंडा लेकर उसके पीछे दौड़ पड़ा। उधर सुखदेव सिंह लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ बाजार पहुँचकर जल्दी से दूध लेकर लौट ही रहा था कि कुछ लोगों ने उसे घेर लिया और बिना बोले उस पर लाठियां बरसाने लगे…सुखदेव सिंह…ऐसा नहीं था कि वो इन लोगों को सम्हाल नहीं सकता था बल्कि वो अकेले आठ- दस को तो मिनटों में धूल चटा सकता था लेकिन अपनी जान की परवाह किये बगैर…दूध की बाल्टी को बचाने में लगा रहा और वो लोग इसकी मजबूरी का फायदा उठाते हुए लाठियां बरसाने में लगे रहे। सुखदेव सिंह बुरी तरह से लहूलुहान के बावजूद दूध की एक बूंद जमीन पर गिरने न दिया …इतने में गुरुचरण  उन लोगों को ललकारते हुए पीछे से आ धमका …सभी लोग घबरा कर भाग खड़े हुए। गुरुचरण ने सुखदेव सिंह को कहा-

“सुखदेव…तुम इतने कमजोर तो नहीं थे कि अपने आप को बचा न सको…’

“गु..रुचर..ण..अगर मैं इनको मारने पर आ जाता तो दूध गिर जाता… फिर बाबू क्या पी..ता…”- कहते- कहते आँसुओं के साथ सुखदेव सिंह की सांसें उखड़ने लगी।

“सुखदेव… तुम को कुछ नहीं होने दुँगा…”-रोते हुए गुरुचरण सुखदेव को पीठ पर लाद कर घर की तरफ दौड़ पड़ा। गुरुचरण घर पहुँचते ही-

“सुखदेव… देख तेरा यार तुझे घर ले आया…अब घबराने की कोई बात नहीं… तु जल्दी ठीक हो जाएगा…”-पीठ से उतारते हुए।

“सुखदेव… सुख…देव…”-गुरुचरण चीख पड़ा…क्योंकि सुखदेव के शरीर से उसकी जान का रिश्ता टूट चुका था।

गुरुचरण की चीख सुनकर घर के सभी सदस्य चौंक उठे…दौड़ कर घर के आंगन की तरफ भागे… जिधर से आवाज आई थी…सहसा उन सभी के कदम ठिठक गए…सामने सुखदेव की लाश देखते ही जैसे साँप सूंघ गया हो…सुखदेव की पत्नी दौड़ कर सुखदेव की लाश से लिपट कर जोर- जोर से बिलाप करने लगी-

“तुम किसी का क्या बिगड़े थे…मुझे क्यूँ अकेला छोड़ गए…तुमने जरा भी नहीं सोचा कि तुम्हारे बिना मेरा क्या होगा…जो ये लोग तुम को मुझसे छीन कर ले गए…”

अपनी छाती पीट- पीट कर रोये जा रही थी तभी गुरुचरण रोते हुए सुखदेव की पत्नी को ढांढस बंधाने लगा-

“मत रो भाभी…ये पागल था…ये दूध की बाल्टी नहीं फेंक सकता था…अगर ये बाल्टी छोड़ देता तो सालों की वाट लग जाती… मेरा यार…ऐसे न जाता…ये अपनी यारी निभा ले गया…”- सुबक-सुबक कर गुरुचरण रोने लगा।

“भइया… दंगे क्यूँ होते हैं..?इससे उन्हें क्या मिलता है… दूसरों का घर उजाड़ कर…आपने उन लोगों को देखा था…”-सुखदेव की पत्नी ने ऐसे पूछा मानो अभी जाकर उन्हें खा जाएगी।

“हाँ… भाभी…परन्तु वो इस गाँव के लग नहीं रहे थे… ऐसा मालूम पड़ता था कि…”- गुरुचरण ने न जाने क्या सोचकर अपनी बात बीच में ही छोड़ दी।

“क्या बात है बड़े पापा…? आप क्या कहना चाहते हैं…कि वो पेशेवर गुंडे थे…?”- सुखदेव के बड़े बेटे बॉबी सिंह ने झटके में कहा।

“हाँ बॉबी…तुम ठीक कहते हो…वो पेशेवर ही थे…क्योंकि उनके मारने के तरीके से ऐसा ही जान पड़ता था कि…”- गुरुचरण गहरी चिन्ता लिए कहते-कहते रुक से गये।

अगले ही दिन से दंगे भी शान्त हो गए जैसे सुखदेव सिंह का ही इंतजार हो…बस दंगे पीड़ितों को मुआवजों की खाना पूर्ति बाकी रह गई थी इसलिए पक्षी-विपक्षी नेताओं का आना-जाना लगा था। लेकिन इस दौरान भी इन गांवों का नाम हो रहा था…पहले भाईचारा प्रेम में…तो अब दंगे में…।

कुछ दिनों बाद सुखदेव सिंह के घर के आगे एक चमचमाती बाइक आ खड़ी हुई। दिखने में बड़ी महँगी लग रही थी। घर के सभी बच्चे बाहर आते हुए-

“वाह…भइया…बहुत सुन्दर है…’

“हाँ…पूरे दो लाख की है…”- बॉबी अपना कॉलर उठाते हुए।

तभी अन्दर से गुरुचरण निकलते हुए-

“क्यूँ नहीं…बाइक लाओगे…क्या हुआ जो बाप मरा है…? जाओ…जाओ… बाप की लाश पर इतने पैसे जो मिले हैं…तुम्हें तो पार्टी करनी चाहिए थी…”- गुरुचरण ने कहा।

“तुम्हें शर्म नहीं आई…अपने थोड़े शौक पूरे करने के लिए दंगे का सहारा लेकर अपने ही बाप को मरवा दिया…धिक्कार है…ऐसी औलाद पर…”- अन्दर से माँ निकल कर बॉबी के गाल पर जोर से थप्पड़ मारते हुए।

“माँ…ये तुम क्या बोल रही हो…”- बॉबी ने गाल सहलाते हुए।

“मत कह मुझे माँ… मैं अपने पति के कातिल से बात नहीं करना चाहती…मुझे गुरुचरण जी ने सब कुछ बता दिया है…”- माँ रोते-बिलखते बॉबी को सीने पर मारते हुए कही जा रही थी।

“क्यूँ बरखुदार… तुम्हें समझ नहीं आ रहा होगा कि इतनी अच्छी योजना… फेल कैसे हो गई?  सुन लो… वो भी सुन लो…जिस दिन तुम्हारे पिता की लाश इस घर पर आई… तुम्हारा चेहरा पीला पड़ने के बजाए खिल उठा…इसलिए उसी दिन से मैं तुम्हारा पीछा करने लगा फिर मैंने देखा कि तुम अपने बाप के मरने से दुखी क्या होगे…तुम तो मुआवजे के चक्कर में पड़े हो..

मैंने सोचा.. चलो मुआवजे के बाद देखते हैं… फिर क्या था… इधर मुआवजा मिला ही था कि तुमने तुरन्त किराये के गुंडों से बात की… शायद तुमने उन गुंडों को कुछ पैसे देने की बात की थी… जैसे ही वो गुंडे आए… मैंने उन्हें पहचान लिया…जिन्हें तुम कुछ पैसे देते हुए…दे ताली…कर रहे थे।”- गुरुचरण घृणा के साथ बॉबी को बताते हुए। और हाँ… एक बात और सुनते हुए जाओ-

“जो बेटा अपने बाप का न हो सका वो हम लोगों का  क्या होगा…जाओ… जाओ…मेरी नजरों से दूर हो जाओ।”

तभी माँ ने आगे बढ़ते हुए। गुरुचरण की तरफ इशारा किया-

“शुक्र करो इनका…जो तुम्हें जेल भेज नहीं रहें…बस हम लोगों पर एक अहसान कर दो…तुम…इस घर से… हम लोगों की ज़िन्दगी से…और इस गाँव से…बहुत दूर कहीं चले जाओ…फिर कभी इस घर की तरफ मुड़ कर मत देखना…हम समझेंगे कि हमारा कोई बेटा पैदा हुआ ही नहीं…”- सुखदेव की पत्नी ने नफरत लिए अपने पति के कातिल को बाहर की तरफ धक्का देते हुए।

बॉबी समझ चुका था कि उसकी पोल खुल गई  अब उसकी दूर जाने में ही भलाई है क्योंकि वो माफी भी माँगता…तो किस मुँह से…न तो उसका बाप वापस आता और न ही किसी की उसके प्रति घृणा कम होती इसलिए मन ही मन पछतावा लिए चुपचाप बॉबी अपनी बाइक उठाकर दूर जाते हुए ओझल हो गया…

OLYMPUS DIGITAL CAMERA

बस उड़ती हुई धूल ही धूल रह गई थी…अभी सुखदेव सिंह की राख ठण्डी भी नहीं हुई थी कि आज फिर उस घर से एक और की अर्थी उठ गई…वो थी बॉबी की… जो बिना मरे हुए ही उस घरवालों के लिए मर चुका था।

यह कहानी आपको कैसी लगी? अपने विचार कमेंट बॉक्स में share करे | अगर कहानी अच्छी लगी हो तो ‘Add to Favourites’ बटन को दबा कर दुसरो को भी यह कहानी पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करे और अपने ‘Your Added Favourites’ (Menu में है आप्शन) में जा कर अपने Favourites मैनेज करे |
मेरे बारे में जानने के लिए About Page पढ़ें और मेरे YouTube Channel को subscribe और Facebook Page को Like करना न भूले| और हाँ, क्या आपको पता है कि मै आप सब के लिए एक EBOOK बना रही हूँ जो कि मै आप सब को FREE में दूंगी? पाने के लिए यहाँ Click करें…

FavoriteLoadingAdd to favorites

आपको यह कहानियाँ भी पसंद आ सकती हैं: 👇🏾

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *