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Apni-Apni Soch | अपनी-अपनी सोच

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कहानी सुनें:

अगर आप कहानी सुनना पसंद नही करते या फिर अभी सुनना नही चाहते तो आगे कहानी पढ़े|

 

कहानी पढ़ें :

एक दिन मैं बाजार जा रही थी। अभी एक दुकान पर जा कर खड़ी ही हुई थी कि पीछे से आवाज आई-

“माई कुछ हो तो दे दो ना…”

मैं ने झट से दस का नोट निकाल कर दे दिया। अभी पैसे दिये ही थे कि दुकानदार ने टोक दिया-

“क्या भाभी जी… इन लोगों को क्यूँ पैसा देती हैं… ये लोग हम लोगों को बेवकूफ बना कर पैसा माँगते हैं… इन लोगों का एक गैंग होता है…जो इन बच्चों से पैसा मंगवाते है…”

मैंने कहा-” ठीक कह रहे हैं भइया… परन्तु पहले मैं भी ऐसा ही सोचा करती थी…किन्तु एक घटना ने मेरी सोच को बदल कर रख दिया…”

एक बार मैं दिल्ली मायके बच्चों के साथ जा रही थी।

नई दिल्ली की स्टेशन पर उतरी तो देखा… मेरा भाई मुझे लेने अभी तक नहीं आया था… फोन करने पर नॉट रिचेबल बता रहा था… थक हार कर ऑटो लेने के लिए स्टेशन से बाहर निकली… निकलते ही सामने सड़क के उस पार एक औरत फुटपाथ पर अपने बच्चे को लेटा कर सभी लोगों से भगवान के नाम पर दवा के लिए पैसे की मदद माँग रही थी परन्तु उसकी मदद के लिए कोई भी आगे नहीं आना चाहता था…

कोई अपना हाथ छुड़वाकर चला जाता तो कोई उसको काम करने की नसीहत दे कर आगे बढ़ जाता… किन्तु कोई भी अल्लाह के नाम पर या भगवान के नाम पर देने को तैयार नहीं था… वो रो-रो के हाल बेहाल होये जा रही थी लेकिन किसी को भी उस पर दया न आती… वो कभी पैदल चलने वालों का हाथ-पैर पकड़ती… तो कभी उनके बच्चों का वास्ता देती…

तो कभी चलती गाड़ियों के पीछे भागती और कहती जाती-

“कोई मेरा बच्चा बचा लो… इसे अस्पताल पहुंचवा दो…’

परन्तु कोई न सुनता.. कोई रुकता तो कोई नहीं रुकता और जो रुकता वो काम करके खाने की नसीहत वाली बात कहकर आगे बढ़ जाता। ऐसे में वो औरत कभी रोती… कभी बिलखती हुई दौड़ कर अपने बच्चे के पास भागती… तो कभी लोगों के सामने हाथ फैलाती लेकिन कोई भी व्यक्ति ऐसा वहाँ नहीं था जो उस औरत की मदद करता। तभी…मैं भी और लोगों की तरह जैसे ही वहाँ से गुजरी…वैसे ही उसकी नजर मेरे पर पड़ी…दौड़ कर मेरे पास आई और कहने लगी-

“भगवान के लिए मेरे बच्चे की मदद कीजिये। उसकी तबीयत खराब है… उसकी जिन्दगी बचा लीजिये… पास जा कर तो देख लीजिए… शायद आप देखें तो औरों को भी यकीन आ जाए…मगर मैं भी औरों की तरह सोच रही थी…मैंने भी उसे काम करने की सलाह देते हुए अन्दर ही अन्दर बड़बड़ाते हुए-

“साले इन लोगों को हराम की खाने की आदत पड़ गई है… ये कभी सुधर नहीं सकते… साले मरेंगे तो हम लोगों से ज्यादा इनके पास पैसे मिलेंगे…ये हमें बेवकूफ समझते हैं”- कहते हुए मैं ऑटो खोजने आगे बढ़ गई।

ठीक आधा घंटे के बाद वापसी में ऑटो पे बैठ कर उधर से जा रही थी कि देखी वो अपने बच्चे के ऊपर लिपट- लिपट कर रो रही थी लेकिन फिर भी वो माँग रही थी परन्तु अब वो दवा या इलाज के लिए नहीं बल्कि अब बच्चे के कफन या दफन के लिए माँग रही थी। मैं अचानक देखते के साथ ही अन्दर से हिल गई…तुरन्त ऑटो को रोक कर नीचे उतरी और उस बच्चे की तरफ देखने लगी… मासूम सा बच्चा फूल की तरह दिख रहा था जो ज़िन्दगी की बाजी हार चुका था…

मैं काँप गई जो थोड़े बहुत मेरे पास पैसे थे वो मैंने चुपचाप उस बच्चे की तरफ रख दिए… उस बच्चे की माँ मुझे ऐसे घूर कर देख रही थी जैसे मैंने ही उसके बच्चे को मारा हो…मैं ऊपर से लेकर नीचे तक सिहर गई… फिर तेजी से मुड़ कर ऐसे भागी जैसे उस बच्चे व माँ की बददुआएँ मेरे पीछे लग गई हो। मैं घर पहुँची तो सर दर्द से फट रहा था मानों उस बच्चे की सारी तकलीफें मेरे अन्दर आ गई हो… सारे दिन किसी भी काम में मन नहीं लग रहा था.. बड़ी बेचैनी थी…दम घुटा रहा था…उस बच्चे के बारे में सोच- सोच कर रौंगटे खड़े होये जा रहे थे व रह- रह कर उसकी माँ का घूरता चेहरा मेरे आँखों के सामने आने से मेरे अन्दर की बेचैनी और बढ़ी जा रही थी। धीरे- धीरे मेरी बाहरी तकलीफें तो ठीक हो गई किन्तु अन्दर से अभी भी मैं मरीज बनी हुई थी…

बार- बार यही सोच रही थी कि मेरी सोच के कारण ही ये बच्चा मर गया… अगर मेरी सोच ऐसी न होती तो शायद ये बच्चा बच जाता…आज जो भी हुआ वो मेरी वजह से हुआ…बार- बार मैं अपने को ही कोसी जा रही थी।

कुछ दिनों के बाद मैं उस औरत से मिलने का मन बनाते ही…ऑटो पकड़ ठीक उसी जगह गई जहाँ पहली बार वो औरत अपने बच्चे के साथ मिली थी लेकिन वो वहाँ न थी। मैंने आस पास के लोगों से उस औरत के बारे में पूछी-

“अरे भाई…छः सात दिनों पहले यहाँ एक औरत अपने बच्चे के साथ रो रही थी… जिसका बच्चा बिना इलाज के मर गया था…क्या उस औरत के बारे में जानते हो…”

सभी कहने लगे-

“नहीं मैडम…हमें नहीं पता…”

मैंने बड़ी कोशिश की, कि उसका पता चल जाए किन्तु किसी को उसके बारे में कुछ भी पता नहीं था…पाँच-छः घंटे इधर उधर लोगों से… घरों से…होटल वालों से…सड़क के किनारे रोज अपनी दुकान लगाने वालों से…यहाँ तक कि स्थानीय लोगों से पूछी लेकिन सभी का जवाब एक ही था…’नहीं’… थक हार कर मैं घर वापस आ गई परन्तु जहन में मेरे एक बात आ गई थी कि अगर हम सक्षम है तो किसी को दे देने से न तो हम गरीब होते हैं और न ही वो अमीर…बस दिल को तसल्ली हो जाती है और रह गई उनके बेवकूफ बनाने की तो…बेवकूफ कौन नहीं बनाता… जिसके पास जाओ वहीं हमें बेवकूफ बनाता है चाहे दूध वाले… सब्जी वाले… फल- फूल वाले… यहाँ तक कि स्कूल कॉलेज वाले भी हमें बेवकूफ बनाने से बाज नहीं आते हैं इसलिए उस दिन के बाद से भइया  (दुकानदार से)…मैं किसी को खाली हाथ नहीं लौटाती। इतना जानती हूँ कि भगवान के नाम पर हमें कोई बेवकूफ बना ले तो शायद भगवान कम से कम हमारी गलतियों को तो माफ कर देगा।

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Anita Agrawal :