Maa… Mai Nirdosh hu | माँ… मैं निर्दोष हूँ

ऐ…करमजली…ह-रा-म-खो-र…जन्म लेते ही माँ को खा गई, अब मुझे खायेगी क्या? अभी तक सोती रहेगी…संध्या हड़बड़ा कर उठ बैठी… देखी…प्रातःकाल के छः बज रहे थे। दिल डर के मारे बहुत तेजी से धड़कने लगा था, मानो दिल मुँह को आ जाएगा क्योंकि ये आवाज जानी पहचानी सौतेली माँ की थी और संध्या बिस्तर पर बैठी काँप रही थी। एक बार फिर वही दिल दहलाने वाली आवाज गूंज उठी। संध्या झट से उठकर खड़ी हो गई।
“सुन…मैं आज अपनी बहन के घर जा रही हूँ…जल्दी से घर का काम कर ले…जब तक मैं आऊँ, खाना बना कर रखना…” – कमला कहती हुई गुसलखाने में घुस गई।


संध्या की बेबस, लाचार निगाहें अपनी माँ को गुसलखाने में जाते हुए देखती रही…इतना भी न कह सकी, कि माँ मेरी तबीयत ठीक नहीं क्योंकि वह जानती थी कि उसकी मां इतना सुनते ही चण्डी का रूप धारण कर लेगी।
झाड़ू उठाए मैं, जैसे ही माँ के कमरे में झाड़ू लगाने गई…देखी…अंकुर जो ग्यारह साल का था वो नींद में होने के कारण पलंग के बिल्कुल किनारे आ गया था, अगर एक करवट और बदल ले, तो वो नीचे गिर जाएगा , यही सोचकर.. झट झाड़ू छोड़कर उसे पकड़ने के लिए दौड़ी परन्तु जब तक पकड़ती कि अंकुर करवट लेते हुए पलंग पर से नीचे गिर जाने के कारण…अंकुर जोर-जोर से रोने लगा।
अरे…ये तो अंकुर के रोने की आवाज है…जरूर इस कलमुँही ने गिरा दिया होगा…अस्त व्यस्त साड़ी पहन जल्दी से गुसलखाने से निकलकर कमरे की ओर भागी…देखा अंकुर के ललाट पर थोड़ी सूजन आ गई थी…फिर क्या होना था वही हुआ जो हमेशा होता आया है…झट से एक बेंत उठाया और संध्या पर मानो जैसे कहर ही टूट पड़ा हो… स..ड़ा..क, स..ड़ा..क ।
“माँ…माँ…मैं निर्दोष हूँ…मुझे छोड़ दो…मैंने अंकुर को नहीं गिराया…”- संध्या अपनी मां से मिन्नत करती रही परन्तु ये मर्म दास्तान जो आज तक नहीं सुनी वह आज क्या सुनती। बस बेंतों की साँय-साँय की आवाजों के नीचे दफन हो कर रह गई।
“उफ्फ्फ…मैं तो बिल्कुल ही थक गई..”- संध्या की सौतेली माँ अपना पसीना पोछते हुए अंकुर को अपने साथ रसोईघर की तरफ ले गई। तभी-
“अरी ओ संध्या…! स्टोव के पास एक पीस पावरोटी पड़ी थी…कहाँ गई…?”
माँ…तुम ने तो कल ही खा लिया था…”-संध्या ने कहा।
“क्या मैं…! ठीक है…ठीक है…जा अपना काम कर…मैं जा रही हूँ…देख कुछ भी इधर उधर से उठा कर मत खाना , नहीं तो तेरी खाल खींचकर रख दूँगी…जब मैं आऊँगी तब तुझे खाना दे दूँगी… समझ गई ना…”-संध्या की माँ ने आँखें दिखाते हुए कहा।
संध्या मूक होकर हाँ में सिर हिला दिया। यह संध्या के लिए नई बात न थी। आज बेंतों से…कल डंडों से…परसों लातों से…यह तो उसकी रोज की दिनचर्या बन गई थी। संध्या अभी आँसू भी नहीं पोछ पाई थी कि-
“संध्या…ओ संध्या…”- बाहर से एक जानी पहचानी आवाज आई।
अरे…ये तो बापू की आवाज है। संध्या दौड़ कर बाहर दरवाजे पर गई और बापू को देख भाव विभोर हो उठी। आज बरसों बाद बापू घर आ रहे थे। उसकी खुशी का ठिकाना न था। संध्या को अपनी माँ का तो याद नहीं परन्तु सौतेली माँ का अच्छी तरह याद है जब वो छोटी थी तो उसके बापू उसे अपने कंधों पर बैठा कर पूरा गाँव घुमाते तो माँ अक्सर कहती-
“क्या इसे कंधें पर बैठा कर घुमाते रहते हो…इसको घर पर ही छोड़ जाया करो…थोड़ा मेरा हाथ बटा देगी करेगी…”
लेकिन बापू थे कि मानते ही नहीं थे। वो ये कह कर माँ को चुप करा देते कि-
“मेरी एक ही तो लाडली बेटी है…उसे भी न घुमाऊँ…इसे तो बहु– त बड़े स्कूल में पढ़ाऊंगा…तुम देखती जाना…बिटिया मेरी डॉक्टराइन बनेगी…”
यह सुन माँ बुरा सा मुँह बना कर वहाँ से चली जाती और हम दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ते। उस समय हम लोगों के पास एक जमीन का टुकड़ा था। उसी जमीन पर बापू सारा दिन काम करते…तब भी बापू मुझे गाँव घुमाते… अपने साथ ही बैठा कर खाना खिलाते…सुलाते… इसके अलावा पढ़ाने के लिए मास्टर लगा दिए। संध्या का सारा सुख बापू के कदमों में ही था लेकिन एक दिन संध्या के सारे सुखों पर ग्रहण लग गया। दरअसल संध्या का बापू कुछ सालों पहले अकाल पड़ने के कारण साहूकार से दस हजार रुपये सूद पर उठाये थे और धीरे-धीरे चुका भी रहे थे लेकिन साहूकार का कर्ज़ था कि खत्म होने का नाम नहीं…आखिर खतम भी कैसे होता…? साहूकार की नजर उसकी जमीन पर जो टिकी हुई थी…न जाने साहूकार ने भी उस जमीन को हथियाने के लिए क्या-क्या न संध्या के बापू को प्रलोभन दिए। लेकिन सब बेकार… क्योंकि वो किसी भी कीमत पर अपनी जमीन देने को तैयार न थे।


एक दिन न जाने उस साहूकार की नजर मेरे ऊपर कैसे पड़ गई…वह झट बापू से अपना पूरा कर्ज़ मय सूद लेने आ गया। बापू उसके सामने बहुत गिड़गिड़ाते हुए-
“सेठ जी…इतनी बड़ी रकम…! इतनी बड़ी रकम मैं इतनी जल्दी कहाँ से दूँ…? कुछ समय दीजिए सेठ जी… मेरे परिवार पर रहम कीजिये…”
“मैं कुछ नहीं जानता…बहुत दिन हो गए पैसे दिए हुए अब मुझे पैसे आज और अभी चाहिए…नहीं तो तेरी जमीन व घर मेरा…”-साहूकार ने आँखें तरेर कर कहा।
“नहीं सेठजी नहीं…ऐसा मत करो…मैं बीवी बच्चे वाला हूँ…बच्ची बड़ी हो रही है… उसे ले कर कहाँ जाऊँगा…” – कहते-कहते संध्या के बापू रो पड़े।
“चल… तू कहता है तो…एक काम और हो सकता है…जिससे तेरे सारे कर्जे माफ हो जायेंगे…तेरी बेटी संध्या… दस-बारह साल की तो हो ही गई होगी… क्यूँ न उसकी शादी मेरे से कर देते…”- साहूकार ने एक अभद्र मुस्कुराहट के साथ कहा।
” नी.. च, ना.. लाय.. क , कमी.. ने , अब आगे कुछ भी कहा तो मैं तेरा खून कर दुँगा…”- बापू चीखते हुए साहूकार पर हाथ उठाते-उठाते रह गए।
“खून करेगा…! बड़ा आया खून करने वाला…आज शाम तक पूरा पैसा चुका देना वरना…”- साहूकार ने जाते हुए कहा।
तभी अचानक ख..च्च की आवाज के साथ बापू ने आव देखा न ताव साहूकार के पेट में पूरा खंजर घोंप दिया। साहूकार घर के दरवाजे पर ही गिर कर तड़पने लगा। चारों तरफ से गाँव के लोग चिल्लाने लगे कि-
“खून हो गया… खून हो गया… साहूकार का खून हो गया…”
देखते ही देखते पूरा गाँव हमारे घर के सामने इकट्ठा हो गया… कुछ लोगों ने बापू को भी पकड़ लिया। गाँव का थानेदार आते ही-
“कहो भाई… ये खून किसने किया”
“संध्या के बापू ने…”- कई लोगों का एक साथ स्वर निकला।
“चलो… इसे ले चलो”-थानेदार ने कहा
“छोड़ दो… मेरे बापू को छोड़ दो…”- मैं थानेदार पीछे भागी।
“चल हट… तेरे बाप ने साहूकार का खून किया है… कैसे छोड़ दूँ… चलो…चलो इस साले को जेल ले चलो…”- थानेदार भीड़ को हटाते हुए।
थानेदार साहब मेरे बापू को जेल ले गए। उस दिन के बाद आज बापू पूरे दस साल के बाद घर आ रहे थे। संध्या अभी सोच ही रही थी कि उसकी तंद्रा तब भंग हुई जब उसने महसूस किया कि उसके सर पर किसी का हाथ था।
“ओह्… बापू!”- इतना कहते ही संध्या अपने बापू के गले से लिपट गई।
“अरे…ये क्या संध्या! तुझे तो बहुत तेज बुखार है…तूने अपनी दवा नहीं ली…? कमला… अरी ओ कमला”- संध्या का बापू चलो तरफ देखते हुए।
“नहीं… नहीं बापू… म-म-माँ है न। वह मुझे अभी-अभी डॉक्टर से दिखलाकर ला रही है। तुम बैठो बापू मैं अभी पानी लाई…”-संध्या कहते हुए पानी लेने चली गई।
“घर तो बहुत साफ सुथरा दिख रहा है…अरी संध्या तेरी माँ कहाँ गई?”- बापू ने पानी का गिलास लेते हुए
“माँ…हाँ…माँ अंकुर के साथ घर का सामान लेने गई है बापू “-संध्या कुछ सोचते हुए।
” संध्या…दस साल की सजा… बहुत लम्बी थी…मेरे से ज्यादा तुम लोगों ने दुःख उठाये हैं…तभी तो जमीन साहूकार के पास चली गई…पेट भरने के लिए पहले घर गिरवी पर रखा…फिर घर का सामान बिका…आखिरकार तब भी पेट की आग न बुझी तो तुम लोगों ने एक कमरे को छोड़ बाकी घर का हिस्सा बेच दिया… मुझे माफ कर दो…बेटा…” – हाथ जोड़ते हुए।
“ये क्या कर रहे हो बापू…”-संध्या बापू का हाथ पकड़कर रोते हुए।
“अपने बापू से मिलकर… मेरी जी भर शिकायत कर ली..”- कमला घर में घुसते हुए।
संध्या के उस दिन से दिन ही फिर गए। अब उसके जीवन में खुशियाँ ही खुशियाँ थी परन्तु संध्या की ये खुशियाँ ज्यादा दिन रह न पाई। एक दिन अचानक संध्या के बापू घर की छत बनाते वक्त्त नीचे गिर पड़े। चारों तरफ भीड़ ही भीड़ जमा हो गई। उस भीड़ में संध्या जोर-जोर से चीख कर कह रही थी कि-
“मेरे बापू को कोई बचा लो…मेरे बापू को कोई बचा लो…”
पर होता वही है जो राम रची राखा…संध्या के बापू तो बच गए लेकिन अपाहिज हो गए। अब वो चल फिर नहीं सकते थे। उस दिन से फिर संध्या पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा। कमला संध्या पर किसी भी तरह का जुल्म करने से नहीं कतराती लेकिन संध्या के बापू कुछ भी न बोल पाते…उनकी बेबसी…लाचारी ने बापू को खामोश कर दिया था और संध्या ये सब देख तड़प जाती…जब भी बापू को अकेला पाती तो फूट-फूट कर रोते हुए कहती-
“बापू ये तुम को क्या हो गया…”
तभी एक कर्कश आवाज गूँज उठती…
“चुड़ैल… यहाँ पड़े रोने से काम-धन्धा हो जाएगा…? चल उठ… काम कर… तीन महीने बीत गए… खाने को घर में एक दाना भी नहीं है…महारानी अब तो कोई काम धन्धा ढूंढ़ ले…”-कमला ने मुँह बनाते हुए कहा।
“अच्छा माँ…”-संध्या सिर हिलाते हुए घर से बाहर निकल पड़ी।
संध्या घर से निकल तो गई लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा था कि काम-धन्धा खोजे तो कहाँ खोजे। फिर भी…
“शाम हो गई…अभी तक संध्या की बच्ची नहीं आई… घर का पूरा काम पड़ा है क्या उसका बाप करेगा…”-कमला बड़बड़ाते हुए।
“क्यूँ उस बिचारी को दिन रात कोसती रहती हो”- संध्या के बापू ने गिड़गिड़ाते हुए कहा।
“हाँ… हाँ… मैं तो उसकी सौतेली माँ जो ठहरी… तभी तो बाप-बेटी दोनों को लगा रहता है कि मैं उसे खा ही जाऊँगी…अरे मै, इसमें कौन सा गलत बोल रही हूँ…”-कमला अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाई थी कि उसी वक्त संध्या के घर आते ही-
“रात होने को आई… अब घर आ रही हो… कोई काम मिला…”- कमला ने आशा भारी निगाहों से देखते हुए।
“नहीं माँ…”- संध्या इसी के साथ एक ठण्डी सांस भरते हुए।
आज संध्या को काम ढूंढते पूरे दस दिन हो गए थे लेकिन काम था कि मिलने को तैयार न था और ऊपर से माँ का ताना-
“इस कलमुँही को दस दिनों से एक काम भी नहीं मिला… पता नहीं सारा-सारा दिन क्या करती है…? हुह… करती क्या होगी… गुलछर्रे उड़ाती होगी…”-कमला ने मुँह बिचकाते हुए संध्या को सुनाया।
“ओह्…! माँ तुझे मैं क्या बताऊँ… बाहर की दुनिया कितनी बुरी होती है… इस दुनिया में सभी लोग मजबूरी का फायदा उठाना चाहते हैं…”- संध्या ने छोटे वाक्यों में ही पूरी बात अपनी माँ को समझाते हुए।
“तो क्या हुआ… सभी लोग ऐसे होते हैं… तू क्या अपने आप को बहुत सुन्दर समझती है? जो तू अपने मन की करेगी…”-कमला ने आँखें मटकाते हुए।
“माँ…”- संध्या की एक दर्द भरी चीख निकलते-निकलते हलक में अटक कर रह गई।
“अरी संध्या…! अन्दर माँ बेटी की क्या बातें हो रही है… जरा हमें भी तो बताओ…”- संध्या के बापू ने खाट पर पड़े-पड़े ही आवाज लगाई।
“ये क्या बताएगी…मैं बताती हूँ…आपकी लाडली काम नहीं करना चाहती…घर पर ही पड़े-पड़े मेरी छाती पर मूंग दलेगी (थोड़ा रोने का नाटक करते हुए)आज पूरा हफ्ता हो गया मेरे मुँह में अनाज का दाना गए…”
संध्या ने मन में बुदबुदाते हुए कहा-
“माँ…कल ही तो तुमने और अंकुर ने पावरोटी खाई थी…हाँ…बापू को जरूर तीन रोज बीत गए हैं और मैंने भी तो एक सप्ताह से कुछ नहीं खाया है… ओह्…अब बापू का दर्द सहा नहीं जाता…”- इतना सोचते ही संध्या मन ही मन कुछ निश्चय करती हुई धरती पर एक फटी बोरी बिछाकर सो गई।
अगली सुबह-
“काम पर नहीं जाना क्या…? ओ…संध्या की बच्ची…अभी तक सोती ही रहेगी…सूरज सर पर चढ़ आया…”- कमला ने तेज स्वर में कहा।
आज संध्या का मुख किसी कठोर चट्टान की भांति स्थिर था। न आज वह डर था… न वो भोलापन…।
“अच्छा माँ… जा रही हूँ”-संध्या घर से जाते हुए।
“जा…जा…”-कमला ने गर्दन हिलाते हुए कहा।
समय बीत रहा था…किन्तु ज्यूँ-ज्यूँ और समय बीत रहा था त्यों त्यों संध्या के बापू को अन्दर से चिन्ता हुई जा रही थी क्योंकि आज तो हद ही हो गई थी। रात… बहुत रात हो गई लेकिन संध्या अभी तक घर नहीं आई थी।उसी वक्त दरवाजे पर दस्तक हुई…
“लो आ गई…”-संध्या के बापू ने कहा।
कमला दरवाजा खोलते ही चीख पड़ी-
“सुनते हो संध्या के बा…पू…! देखो तो सं…ध्…या को क्या हो ग…या…”
एक अजनबी संध्या की लाश को लिए खड़ा था। उसने कहा-
“इस लड़की ने मरने से पहले मुझे दो सौ रुपए आप तक पहुँचाने के लिए दिए थे…ये कहते हुए कि-
“मेरा मर जाना ही अच्छा होगा क्योंकि मैं अपनी पाप की कमाई…अपने बापू को अपने हाथों से नहीं दे सकती।”
उसके कहने के पश्चात…मैं उसे कुछ कहता कि उसने सामने से आती हुई बस के नीचे दब कर आत्महत्या कर ली।
“न…हीं…हीं…हीं…!मेरी बेटी संध्या अपने लाचार बापू को छोड़कर नहीं जा सकती… कभी नहीं जा सकती…”- इतना कहते-कहते संध्या के बापू एक पत्थर की मूरत जैसे बन गए।
संध्या इस तरह खून से लथपथ थी ,जैसे कुदरत ने उसे जुल्मों से आजाद करके दुल्हन की तरह सजा दिया हो।
“राम नाम सत्य हो”…”राम नाम सत्य हो”…कई लोगों का सम्लित स्वर पूरे दुःखद वातावरण में गूँज उठा। आज इस घर से संध्या की डोली की जगह अर्थी उठ रही थी और ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो घर की सभी दीवारें संध्या पर हुए अत्याचारों की दास्तां बार बार दोहरा रही हो… और यह कहती हुई दीवारें फिर गूँज उठती थी कि”माँ…माँ…मैं निर्दोष हुँ।”

 

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